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पेरिस/तेहरान/नई दिल्ली: भारत और अमेरिका के रिश्तों की मजबूती आज दुनिया देख रही है और ये लगातार बढ़ती ही जा रही है, लेकिन हमेशा से ऐसा नहीं था। एक समय तो ऐसा भी था जब भारत की खुफिया एजेंसी रिचर्च एंड एनालिसिस विंग (RAW) यानी रॉ ने अमेरिका के खिलाफ जासूसी करने के लिए वैश्विक खुफिया गठबंधन बनाया था। ये कहानी है 1970 के दशक की और इसमें दो देश शामिल थे। इनमें एक तो पश्चिम में अमेरिका का सहयोगी ही था। यह एक बहुत ही दिलेरी भरा मिशन था और भारत के लिए बहुत जरूरी था।1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद से अमेरिका के साथ नई दिल्ली के रिश्ते मुश्किल हो गए थे। भारत-पाक युद्ध में अमेरिका ने खुलकर पाकिस्तान का साथ दिया और बंगाल की खाड़ी में अपना विमानवाहक पोत यूएसएस इंटरप्राइजेज को भेज दिया था। इस घटना के बाद भारत ने महसूस किया कि उसे अमेरिकी नौसेना के बारे में खुफिया जानकारी रखने की आवश्यकता है।
रॉ को राजनीतिक नेतृत्व से थी मंजूरी
तत्कालीनी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रॉ के पहले प्रमुख आर एन काव से अमेरिकी पर जासूसी करने को कहा, लेकिन काव को पता था कि रॉ अकेले ऐसा नहीं कर सकता। इसके लिए भारत को विदेशी सहयोगियों की आवश्यकता थी। रॉ ने पहले सोवियत रूस की केजीबी से अमेरिकी सेना की खुफिया जानकारी मांगी, लेकिन जल्द ही समझ आ गया कि यह भी काफी नहीं था। ब्रिटेन, जर्मी और इजरायल जैसे देश अमेरिका के करीब थे और भारत की मदद नहीं करने वाले थे।
फ्रांस से मिला रॉ को साथ
लेकिन एक पश्चिमी देश था जो भारत की मदद कर सकता था। यह था फ्रांस और काव ने फ्रांस की शीर्ष विदेशी खुफिया एजेंसी SDECE के प्रमुख से संपर्क किया। भारतीय खुफिया एजेंसी में अपने अनुभवों पर बी रमन ने 'काव बॉयज ऑफ रॉ' पुस्तक लिखी है। इसमें उन्होंने भारत की योजना के बारे में बताया है। रमन ने अपनी किताब में बताया कि फ्रांस कागजों पर अमेरिका का सहयोगी था, लेकिन यह अमेरिका के प्रति संदेह रखता था। यही वजह थी कि फ्रांस रॉ और भारत की मदद करने के लिए सहमत हो गया।
ईरान भी हुआ था शामिल
लेकिन फ्रांस एक और अमेरिकी सहयोगी ईरान को शामिल करना चाहता था। ईरान पर शाह मोहम्मद रेजा पहलवी का शासन था। ईरान के शाह का यह विचार पसंद आया और जल्द ही ईरानी खुफिया एजेंसी SAVAK ने भारत के साथ काम करना शुरू कर दिया। 1975 और 1976 में पेरिस, तेहरान और नई दिल्ली में गुप्त बैठकें हुईं, जिसके बाद एक योजना बनी।
मुश्किल में फंसी योजना
योजना थी कि भारत अपने पूर्वी और पश्चिमी तटों पर दो प्रमुख निगरानी स्टेशन स्थापित करेगा। साथ ही प्रमुख हिंद महासागर देशों में भी स्टेशन स्थापित गिए गए जाएंगे। फ़्रांस उपकरण और विशेषज्ञता प्रदान करेगा जबकि ईरान पैसे देगा, लेकिन जल्द ही समस्या आ गई। हिंद महासागर के देश भारतीय जासूसी स्टेशन की मेजबानी नहीं करना चाहते थे। यह खबर सार्वजनिक होती को घरेलू स्तर पर बड़ा विवाद खड़ा होगा।
रॉ अभी इस पर काम कर ही रहा था कि एक बड़ा संकट आ गया। 1979 में हुई इस्लामी क्रांति ने ईरान के शाह को सत्ता से हटा दिया। इससे ईरान साझेदारी से बाहर हो गया। ईरान के बाहर होने के कारण परियोजना के लिए आवश्यक धन का संकट खड़ा हो गया। इस तरह ये महत्वाकांक्षी योजना का अंततः अंत हो गया।
रॉ को राजनीतिक नेतृत्व से थी मंजूरी
तत्कालीनी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने रॉ के पहले प्रमुख आर एन काव से अमेरिकी पर जासूसी करने को कहा, लेकिन काव को पता था कि रॉ अकेले ऐसा नहीं कर सकता। इसके लिए भारत को विदेशी सहयोगियों की आवश्यकता थी। रॉ ने पहले सोवियत रूस की केजीबी से अमेरिकी सेना की खुफिया जानकारी मांगी, लेकिन जल्द ही समझ आ गया कि यह भी काफी नहीं था। ब्रिटेन, जर्मी और इजरायल जैसे देश अमेरिका के करीब थे और भारत की मदद नहीं करने वाले थे।फ्रांस से मिला रॉ को साथ
लेकिन एक पश्चिमी देश था जो भारत की मदद कर सकता था। यह था फ्रांस और काव ने फ्रांस की शीर्ष विदेशी खुफिया एजेंसी SDECE के प्रमुख से संपर्क किया। भारतीय खुफिया एजेंसी में अपने अनुभवों पर बी रमन ने 'काव बॉयज ऑफ रॉ' पुस्तक लिखी है। इसमें उन्होंने भारत की योजना के बारे में बताया है। रमन ने अपनी किताब में बताया कि फ्रांस कागजों पर अमेरिका का सहयोगी था, लेकिन यह अमेरिका के प्रति संदेह रखता था। यही वजह थी कि फ्रांस रॉ और भारत की मदद करने के लिए सहमत हो गया।ईरान भी हुआ था शामिल
लेकिन फ्रांस एक और अमेरिकी सहयोगी ईरान को शामिल करना चाहता था। ईरान पर शाह मोहम्मद रेजा पहलवी का शासन था। ईरान के शाह का यह विचार पसंद आया और जल्द ही ईरानी खुफिया एजेंसी SAVAK ने भारत के साथ काम करना शुरू कर दिया। 1975 और 1976 में पेरिस, तेहरान और नई दिल्ली में गुप्त बैठकें हुईं, जिसके बाद एक योजना बनी।मुश्किल में फंसी योजना
योजना थी कि भारत अपने पूर्वी और पश्चिमी तटों पर दो प्रमुख निगरानी स्टेशन स्थापित करेगा। साथ ही प्रमुख हिंद महासागर देशों में भी स्टेशन स्थापित गिए गए जाएंगे। फ़्रांस उपकरण और विशेषज्ञता प्रदान करेगा जबकि ईरान पैसे देगा, लेकिन जल्द ही समस्या आ गई। हिंद महासागर के देश भारतीय जासूसी स्टेशन की मेजबानी नहीं करना चाहते थे। यह खबर सार्वजनिक होती को घरेलू स्तर पर बड़ा विवाद खड़ा होगा।रॉ अभी इस पर काम कर ही रहा था कि एक बड़ा संकट आ गया। 1979 में हुई इस्लामी क्रांति ने ईरान के शाह को सत्ता से हटा दिया। इससे ईरान साझेदारी से बाहर हो गया। ईरान के बाहर होने के कारण परियोजना के लिए आवश्यक धन का संकट खड़ा हो गया। इस तरह ये महत्वाकांक्षी योजना का अंततः अंत हो गया।
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